दर्शन

दर्शन

दर्शन उस अध्ययन को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके। ‘तत्व दर्शन’ या ‘दर्शन’ का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व ज्ञान कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बन्धन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। दर्शन ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न है।

भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था:

भारतीय दार्शनिकों की सूक्ष्मताओं को देखते हुए यूरोप के अधिकांश महान दार्शनिक स्कूल के बच्चों जैसे लगते हैं।

भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था।

तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली को हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे – धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।

प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।

भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ।

‘दर्शन’ शब्द का अर्थ

पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘दर्शन’ शब्द, ‘दृशिर् प्रेक्षणे’ धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनि ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन आदि-आदि।

भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय

दर्शनों का उपदेश वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी है। बिना दर्शनों के आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन होना दुर्लभ है।

र्शन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। गीता के अनुसार किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः (संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है, इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह नहीं जान पाते।) परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव है, अन्यथा नहीं।

दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं- लौकिक और अलौकिक अथवा मानवी (सापेक्ष) और आध्यात्मिक (निरपेक्ष)। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।

नीचे प्रमुख दर्शनशास्त्रों के प्रथम सूत्र दिये गये हैं जो मोटे तौर पर उस दर्शन की विषयवस्तु का परिचय देते हैं:

अथातो धर्मजिज्ञासा। ( पूर्वमीमांसा )
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। ( वेदान्तसूत्र )
अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः। ( वैशेषिकसूत्र )
अथ योगानुशासनम्। ( योगसूत्र )
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। ( सांख्यसूत्र )
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात्निःश्रेयसाधिगमः। ( न्यायसूत्र )

(अर्थ: प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान का तत्वज्ञान निःश्रेयस या परम कल्याण का विधायक है।)

विचारों की स्वतंत्रता, मोक्ष का महत्व, आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, आशावादिता, कर्मफल में विश्वास, पुनर्जन्म में विश्वास, आदि भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

भारतीय दर्शन की विकास यात्रा

वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में हमें दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांसा और वैशेषिक समझे जाते थे। बौद्धदर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्तियुक्त अनुमान है।

भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अतः जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्रायः विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है।

भारतीय दर्शन का स्रोत

भारतीय दर्शन का आरम्भ वेदों से होता है। “वेद” भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिन्तन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते हैं। ये “आस्तिक दर्शन” कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं। जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।

वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्रायः पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000 ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं। इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं के समय का अनुमान करना कठिन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया होगा। बहुत से ग्रन्थ प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, अकाल, महामारी आदि) में नष्ट हो गये होंगे। वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है। निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा। वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति “वेद” किसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं। “वेद” एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।

वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को “संहिता” कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है। इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान सन्यासप्रधन नहीं है। वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।

वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।

उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। “आत्मा” विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनन्त और आनन्दमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनन्त है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदान्त मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को “वेदान्त” भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है। सन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।

हिन्दू दर्शन-परम्परा

सनातन धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये छः दर्शन ये हैं- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। गीता का कर्मवाद भी इनके समकालीन है। षडदर्शनों को ‘आस्तिक दर्शन’ कहा जाता है। वे वेद की सत्ता को मानते हैं। हिन्दू दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के आस्तिक दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ भी विद्यमान रहीं हैं।

1) न्याय दर्शन: महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।

2) वैशेषिक दर्शन: महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।

3) सांख्य दर्शन: इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष 25 वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।

4) योग दर्शन: इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत[मृत कड़ियाँ] के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिर्गामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।

5) मीमांसा दर्शन: मीमांसासूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है जिसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।

6) वेदान्त दर्शन: वेदान्त का अर्थ है वेदों का अन्तिम सिद्धान्त। महर्षी बादरायण द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहारकर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है।

आगे चलकर वेदान्त के अनेकानेक सम्प्रदाय (अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि) बने।