ऐतरेयोपनिषद्
ऐतरेयोपनिषद् एक प्रमुख उपनिषद है जो वेदांत दर्शन के अंतर्गत आती है। यह उपनिषद् ऋग्वेदीय ऐतरेयारण्यकान्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय 4, 5 और 6 का नाम ऐतरेयोपनिषद् है। इसमें ब्रह्मविद्या (ब्रह्म का ज्ञान) के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों को विस्तार से वर्णित किया गया है। यह उपनिषद आत्मा (आत्मा), ब्रह्म (ब्रह्मन), जगत (जगत्), और मनुष्य के जीवन के महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करती है।
भगवान शंकराचार्य ने इस के ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके उपोद्घात-भाष्य में उन्हों ने मोक्ष के हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और कर्म समुचित ज्ञान का निराकरण कर केवल ज्ञान को ही उसका एकमात्र साधन बतलाया है।
ऐतरेयोपनिषद् में ज्ञान के अधिकारी का निर्णय किया है और बड़े समारोह के साथ कर्मकाण्डी के अधिकार का निराकरण करते हुए संन्यासी को ही उसका अधिकारी ठहराया है। वहाँ वे कहते हैं कि ‘गृहस्थाश्रम’ अपने गृहविशेष के परिग्रह का नाम है और यह कामनाओ के रहते हुए ही हो सकता है तथा ज्ञानीमें कामनाओं का सर्वथा अभाव होता है। इसलिये यदि किसी प्रकार चित्तशुद्धि हो जानेसे किसीको गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय तो भी कामनाशून्य हो जाने से अपने गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जानेके कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति हो जायगी।
ऐतरेयोपनिषद् में तीन अध्याय हैं। उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायों में केवल एक-एक खण्ड है। प्रथम अध्याय में यह बतलाया गया है कि सृष्टिके आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। उसने लोक- रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल संकल्प से ही अम्भ, मरीचि और मर-इन तीन लोकों की रचना की। इन्हें रचकर उस परमात्मा ने उनके लिये लोकपाल की रचना करनेका विचार किया और जलसे ही एक पुरुष की रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया।
इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्मज्ञान को परमपद-प्राप्तिका एक- मात्र साधन बतलाकर तीसरे अध्याय में उसीका प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय, मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, दृष्टिं, धृति, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु, काम एवं वश ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पश्चमहाभूत तथा उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकारके जीव-जन्तु है।