वेद

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“वेद है सनातन धर्मग्रंथ का एकमात्र प्रमुख हिस्सा। उपनिषद है वेदों का महत्वपूर्ण भाग। गीता है उपनिषदों का सार। महाभारत को पंचमवेद माना गया है, लेकिन यह एक इतिहासिक ग्रंथ है। रामायण भी एक इतिहास ग्रंथ है। स्मृति और पुराण भी इतिहास ग्रंथों की श्रेणी में आते हैं। धर्मग्रंथ का मुख्य हिस्सा वेद ही है।”

वेद ‘विद’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। – सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। – अनुभूत सत्य। – जाँचा-परखा मार्ग। – इसी में संकलित है ‘ब्रह्म वाक्य’।

वेद, भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो प्राचीन हिन्दू धर्म के मूल ग्रंथ है। यह विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य में भी शामिल है। वेद भारतीय संस्कृति में सनातन और वर्णाश्रम धर्म के मूल ग्रंथ के रूप में मान्यता प्राप्त है।

‘वेद’ शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है जानना, इसलिए वेद का शब्दिक अर्थ है ‘ज्ञान’। इसी धातु से ‘विदित’ (जाना हुआ), ‘विद्या‘ (ज्ञान), ‘विद्वान’ (ज्ञानी) जैसे शब्द प्राप्त हुए हैं। इन्हें देववाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए ये ‘श्रुति’ कहलाते हैं। ‘श्रु’ धातु से ‘श्रुति’ शब्द उत्पन्न हुआ है। ‘श्रु’ यानी सुनना। कहा जाता है कि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे। सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया: अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

वेदों को परम सत्य माना गया है। उनमें लौकिक अलौकिक सभी विषयों का ज्ञान भरा पड़ा ह। प्रत्येक वेद के चार अंग है। वे हैं वेदसंहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक तथा उपनिषद

  • वेदसंहिता: वेदों के मन्त्र भाग को संहिता कहा जाता है। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।
  • ब्राह्मण-ग्रन्थ: ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण 3 हैं :
      • ऐतरेय
      • तैत्तिरीय
      • शतपथ।
  • आरण्यक: वन को संस्कृत में कहते हैं ‘अरण्य’। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया ‘आरण्यक’। मुख्य आरण्यक पाँच हैं :
      • ऐतरेय
      • शांखायन
      • बृहदारण्यक
      • तैत्तिरीय
      • तवलकार।
  • उपनिषद: उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं: ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

वेद के चार विभाग है

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

  • ऋग्वेद: ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10462, मंडल की संख्या 10 तथा सूक्त की संख्या 1028 है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या ४३२००० है। इसका मूल विषय ज्ञान है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं: शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।
  • यजुर्वेद: यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल।
      • कृष्ण: वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
      • शुक्ल: याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है।
  • सामवेद: साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।
  • अथर्ववेद: थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।

वेद दुनिया के प्रथम धर्मग्रंथ है। इसी के आधार पर दुनिया के अन्य मजहबों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने वेदों के ज्ञान को अपने अपने तरीके से भिन्न भिन्न भाषा में प्रचारित किया। वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित है इसीलिए इसे श्रुति कहा गया है। वेदों को अपौरुषेय (जिसे किसी पुरुष के द्वारा न किया जा सकता हो), (अर्थात् ईश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे; के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।

शतपथ ब्राह्मण के श्लोक के अनुसार अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने तपस्या की और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को प्राप्त किया। प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु, सूर्य (आदित्य), से जोड़ा जाता है और संभवत: अथर्वदेव को अंगिरा से उत्पन्न माना जाता है। एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।… वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं इसलिए किसी व्यक्ति या स्थान का नाम वेदों पर से रखा जाना स्वाभाविक है। जैसे आज भी रामायण, महाभारत इत्यादि में आए शब्दों से मनुष्यों और स्थान आदि का नामकरण किया जाता है।

वेदों को समझना प्राचीन काल से ही पहले भारतीय और बाद में संपूर्ण विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों – शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र – पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदांत व दस उपनिषद् – इशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा चतुर्वेदभाष्य माधवीय वेदार्थदीपिका बहुत मान्य हैं। यूरोप के विद्वानों का वेदों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही है। अतः वे इसमें लोगों, जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं – लेकिन ये भारतीय परंपरा और गुरुओं की शिक्षाओं से मेल नहीं खाता। अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर कई विद्वानों में असहमति बनी रही है। वेदों में अनेक वैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होते हैं।

वेदों का कालक्रम

वेद सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं। संहिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और “वेदांग” ग्रंथों के साथ-साथ संहिताओं की प्रतिदेयता कुछ विद्वान वैदिक काल की अवधि 1500-600 ईसा पूर्व मानते हैं तो कुछ इससे भी अधिक प्राचीन मानते हैं। जिसके परिणामस्वरूप एक वैदिक अवधि होती है, जो 1000 ईसा पूर्व से लेकर 200 ई.पूर्व तक है। कुछ विद्वान इन्हे ताम्र पाषाण काल (4000 ईसा पूर्व) का मानते हैं। वेदों के बारे में यह मान्यता भी प्रचलित है कि वेद सृष्टि के आरंभ से हैं और परमात्मा द्वारा मानव मात्र के कल्याण के लिए दिए गए हैं। वेदों में किसी भी मत, पंथ या सम्प्रदाय का उल्लेख न होना यह दर्शाता है कि वेद विश्व में सर्वाधिक प्राचीनतम साहित्य है। वेदों की प्रकृति विज्ञानवादी होने के कारण पश्चिमी जगत में इनका डंका बज रहा है। वैदिक काल, वेद ग्रंथों की रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है, संपूर्ण उत्तर भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण ग्रंथों के अर्थों के साथ मंत्र संहिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है, बुद्ध और पाणिनी के काल में भी वेदों का बहुत अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था यह भी प्रमाणित है। माइकल विटजेल भी एक समय अवधि देता है 1500 से 500-400 ईसा पूर्व, माइकल विटजेल ने 1400 ईसा पूर्व माना है, उन्होंने विशेष संदर्भ में ऋग्वेद की अवधि के लिए इंडो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलालेख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतंजलि) को सभी वैदिक संस्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एंटी क्वीन के रूप में, और 1200 ईसा पूर्व (प्रारंभिक आयरन आयु) अथर्ववेद के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया। मैक्समूलर ऋग्वेद का रचनाकाल 1200 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के काल के मध्य मानता है। दयानन्द सरस्वती चारों वेदों का काल 1960852976 वर्ष हो चुके हैं यह (1876 ईसवी में) मानते है।

वैदिक काल में ग्रंथों का संचरण मौखिक परंपरा द्वारा किया गया था, विस्तृत नैमनिक तकनीकों की सहायता से परिशुद्धता से संरक्षित किया गया था। मौर्य काल (322-185 ई० पू०) में बौद्ध धर्म (600 ई० पू०) के उदय के बाद वैदिक समय के बाद साहित्यिक परंपरा का पता लगाया जा सकता है। इसी काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई, ऐसा विद्वानों का मत है। इसी काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने ‘अष्टाध्यायी’ नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो व्याकरणाचार्य कात्यायन और पतञ्जलि उत्तर मौर्य काल में हुए। चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजुर्वेद के कन्वा पाठ में सबसे पहले; हालांकि संचरण की मौखिक परंपरा सक्रिय रही। माइकल विटजेल ने 1 सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में लिखित वैदिक ग्रंथों की संभावना का सुझाव दिया। कुछ विद्वान जैसे जैक गूडी कहते हैं कि “वेद एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं”, इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य संस्कृतियों जैसे विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के संचरित संस्करणों में विसंगतियों की तुलना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते हुए, उस पर ध्यान देते हुए वैदिक साहित्य बहुत सुसंगत और विशाल है जिसे लिखे बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना दिया गया था। हालांकि जैक गूडी कहते हैं, वैदिक ग्रंथों कि एक लिखित और मौखिक परंपरा दोनों में शामिल होने की संभावना है, इसे “साक्षरता समाज के समानांतर उत्पाद” कहते हैं।

वैदिक काल में पुस्तकों को ताड़ के पेड़ के पत्तों पर लिखा जाता था। पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से ऋग्वेद पांडुलिपि है; हालांकि, नेपाल में कई पुरानी वेद पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं।

वेद, वैदिक अनुष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वेदांग कहलाते थे, ये वेदांग प्राचीन विश्वविद्यालयों जैसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला में पाठ्यक्रम का हिस्सा थे।

वेदों का महत्व

वेद सनातन धर्म के मूलाधार है। वेद ही तो एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जो आर्यों की संस्कृति और सभ्यता की पहचान करवाते है। मनुष्य ने अपने शैशव में धर्म और समाज का विकास किया इसका ज्ञान केवल वेदों में ही मिलता है। वेदों से मनुष्य जाती को जीवन जीने की विभिन्न जानकारियां मिलती हैं। इनमे से कुछ प्रमुख जानकारियां निम्नलिखित है।

वेदो में वर्ण एवं आश्रम पद्धतियां की जानकारी के साथ-साथ रीति रिवाज एवं परंपराओं का वर्णन और विभिन्न व्यवसाय के बारे में वर्णन किया गया है।

वेदो में वर्ण एवं आश्रम पद्धतियां की जानकारी के साथ-साथ रीति रिवाज एवं परंपराओं का वर्णन और विभिन्न व्यवसाय के बारे में वर्णन किया गया है। महर्षि अत्रि कहते हैं की:

नास्ति वेदात् परं शास्त्रम्।
अर्थात: वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है।

और

महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं की

यज्ञानां तपसाञ्चैव शुभानां चैव कर्मणाम्।
वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः।।
अर्थात: यज्ञ के विषय में, तप के सम्बन्ध में और शुभ-कर्मों के ज्ञानार्थ द्विजों के लिए वेद ही परम कल्याण का साधन है।

प्राचीन काल से वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा भारत में रही है। विद्वानों के अनुसार आर्षयुग में परमपिता ब्रह्मा, जैमिनि ऋषि और आदि ऋषि-मुनियों ने शब्द प्रमाण के रूप में वेद को माना हैं, और वेद के आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किया हैं। जैमिनि ऋषि, पराशर ऋषि, कात्यायन ऋषि, याज्ञवल्क्य ऋषि, व्यास ऋषि, आदि को प्राचीन काल के वेद वक्ता कहते हैं।

वेदों का सार

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास रीति-रिवाज आदि, लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्मा जी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई। वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक है। इसीलिए किसी व्यक्ति या स्थान का नाम वेदों पर से रखा जाना स्वाभाविक है। जैसे आज भी रामायण, महाभारत इत्यादि से आये शब्दों से मनुष्य और स्थान आदि का नामकरण किया जाता है। वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुरानी लिखित दस्तावेज है।

इस संसार के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ वेद ही है। वेद की वाणी ही ईश्वर की वाणी है। वेद हमारी भारतीय संस्कृति की रीढ़ हैं इनमें अनिष्ट से संबंधित उपाय तथा जो इच्छा हो उसके अनुसार उसे प्राप्त करने के उपाय संग्रहित है लेकिन जिसप्रकार किसी भी कार्य में मेहनत लगती है उसी प्रकार इन रत्न रूपी वेदों का श्रम पूर्वक अध्ययन करके ही इनमें संकलित ज्ञान को मनुष्य प्राप्त कर सकता है।

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