मांडूक्योपनिषद

मांडूक्योपनिषद

मांडूक्योपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचयिता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है। इसमें आत्मा या चेतना के चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। प्रथम दस उपनिषदों में समाविष्ट केवल बारह मंत्रों की यह उपनिषद् उनमें आकार की दृष्टि से सब से छोटी है किंतु महत्त्व के विचार से इसका स्थान ऊँचा है, क्योंकि बिना वाग्विस्तार के आध्यात्मिक विद्या का नवनीत सूत्र रूप में इन मंत्रों में भर दिया गया है।

इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है। मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद के ब्राह्मण भाग से लिया गया है।

मांडुक्य उपनिषद का विषय रहस्यवादी शब्दांश, ओम की एक व्याख्या है, जिसमें मन को ध्यान में प्रशिक्षित करने की दृष्टि से, स्वतंत्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से, धीरे-धीरे, ताकि व्यक्तिगत आत्मा को परम वास्तविकता के साथ जोड़ा जा सके। इस ध्यान का आधार विद्या (ध्यान) में समझाया गया है, जिसे वैश्वनार विद्या के नाम से जाना जाता है। यह वैश्वनार के रूप में नामित सार्वभौमिक होने के ज्ञान का रहस्य है। इसकी समझ का सरल रूप मानवीय गुणों का दैवीय अस्तित्व में स्थानांतरण है, और इसके विपरीत । इस ध्यान में व्यक्ति ब्रह्मांड को अपने शरीर के रूप में देखता है।

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