पूजा विधि और अध्याय
श्री सत्यनारायण कथा (Shri Satyanarayan Katha) करने का शुभ दिन पूर्णिमा, अमावस्या, रविवार, गुरुवार, संक्रांति के दिन एवं अन्य पर्व-त्यौहारों पर करने का शास्त्रोंक्त विधान मिलता है। सत्यनारायण कथा का प्रारंभ करने से पहले विशेष पूजा की जाती है। सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा, भगवान विष्णु की पूजा, पृथ्वी की पूजा, भगवान शालिग्राम की पूजा की जाती है। सत्यनारायण कथा का उल्लेख स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में मिलता है।
श्री सत्यनारायण कथा (Shri Satyanarayan Katha)में पांच अध्याय और 170 श्लोक संस्कृत भाषा में मिलते है। श्री सत्यनारायण कथा (Shri Satyanarayan Katha ) में संकल्प को भूलना और प्रसाद का अपमान करना यह दो प्रमुख विषय है। सत्यनारायण कथा के पांच अध्यायों में बताया गया हे की सत्य का पालन न करने से कई प्रकार की समस्या आती है। इसलिए सत्य व्रत का पालन करना चाहिए।
पवित्रकरण
पवित्र होने के लिए सबसे पहले बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका, मध्यमा व अगुष्ठा से निम्नलिखित श्लोक बोलते हुए अपने ऊपर जल छिड़कर पवित्र हो जाए।
श्लोक
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥
पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।
निचे दिया गया श्लोक का उच्चारण करते हुए आप पूजा में बेठ ने वाले आसन पवित्र करने के लिए जल छिड़के।
ॐ पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम् ॥
ग्रंथि बंधन
ॐ यदाबध्नन दाक्षायणा हिरण्य(गुं)शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्यंजरदष्टियर्थासम् ॥
आचमन
अपने अंदर के शरीर को पवित्र करने के लिए दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें और बोले –
ॐ केशवाय नमः स्वाहा,
ॐ नारायणाय नमः स्वाहा,
ॐ माधवाय नमः स्वाहा।
दीपक पूजन
निम्नलिखित श्लोक बोलते हुए दीपक प्रज्वलित करें और दीपक का पुष्प और कुंकु से पूजन करें।
भो दीप देवरुपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविन्घकृत ।
यावत्कर्मसमाप्तिः स्यात तावत्वं सुस्थिर भव ॥
स्वस्ति-वाचन
ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्ट्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
द्यौः शांतिः अंतरिक्षगुं शांतिः पृथिवी शांतिरापः
शांतिरोषधयः शांतिः। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे देवाः
शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वगुं शांतिः शांतिरेव शांति सा।
मा शांतिरेधि। यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु।
पृथ्वी पूजन
निम्नलिखित श्लोक को पढ़ते होए अबिल, गुलाल, हल्दी, रोली, अक्षत, पुष्प से पृथ्वी का पूजन करें।
ॐ पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम् ॥
श्री सत्यनारायण पूजन प्रारंभ
हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर भगवान श्री सत्यनारायण का ध्यान करना चाहिए। श्री सत्यनारायण का ध्यान करते हुए निम्नलिखित श्लोक को पढ़े।
ध्यान मंत्र
ॐ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितंच सत्ये ।
सत्यस्य सत्यामृत सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥
ध्यायेत्सत्यं गुणातीतं गुणत्रय समन्वितम् ।
लोकनाथं त्रिलोकेशं कौस्तुभरणं हरिम् ॥
आह्वान
अब निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करते हुए भगवान श्री सत्यनारायण का आवाहन करें और भगवान को आमंत्रित करे।
श्लोक
आगच्छ भगवन् ! देव! स्थाने चात्र स्थिरो भव ।
यावत् पूजां करिष्येऽहं तावत् त्वं संनिधौ भव ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, श्री सत्यनारायणाय आवाहयामि, आवाहनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि ।
श्री सत्यनारायण भगवान को बैठने के लिए पीले चावल का आसन करे और निचे दिया गया श्लोक बोले।
आसन मंत्र
अनेक रत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम् ।
भवितं हेममयं दिव्यम् आसनं प्रति गृह्याताम ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, आसनं समर्पयामि ।
निम्नलिखित श्लोक बोलते हुए भगवान के पैर धुलायें।
पाद्यं मंत्र
नारायण नमस्तेऽतुनरकार्णवतारक ।
पाद्यं गृहाण देवेश मम सौख्यं विवर्धय ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पादयोः पाद्यं समर्पयामि ।
अर्घ्य- भगवान को अर्घ्य दें ।
अर्घ्य मंत्र
गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमर्घ्यं सम्पादितं मया ।
गृहाण भगवन् नारायण प्रसन्नो वरदो भव ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि ।
आचमन- भगवान को आचमन करायें।
आचमन मंत्र
कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम् ।
तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, आचमनीयं जलं समर्पयामि ।
निम्नलिखित श्लोक बोलते हुए भगवान श्री सत्यनारायणाय का शुद्ध जल से स्नान करें ।
स्नान मंत्र
मन्दाकिन्याः समानीतैः कर्पूरागुरू वासितैः ।
स्नानं कुर्वन्तु देवेशा सलिलैश्च सुगन्धिभिः ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, स्नानीयं जलं समर्पयामि ।
निचे दिए गए श्लोक का उच्चारण करते हुए भगवान श्री सत्यनारायणाय का पंचामृत- दूध, दही, घी शक्कर एवं शहद मिलाकर पंचामृत से स्नान करना चाहिए।
पंचामृत स्नान मंत्र
पयो दधि घृतं चैव मधुशर्करयान्वितम् ।
पंचामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पंचामृतस्नानं समर्पयामि,
शुद्धोदक स्नान – शुद्ध जल से स्नान करें।
शुद्धोदक स्नान मंत्र
मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् ।
तदिदं कल्पितं तुभ्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ।
भगवान श्री सत्यनारायणाय को वस्त्र या वस्त्र के रूप में कलावा अर्पित करें और निम्नलिखित श्लोक को पढ़े।
मंत्र
शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम् ।
देहालंकरणं वस्त्रं धृत्वा शांतिं प्रयच्छ मे ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, वस्त्रं समर्पयामि ।
(वस्त्र अर्पित करें, आचमनीय जल दें।)
यज्ञोपवीत – भगवान को जनेऊ अर्पित करें ।
नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम् ।
उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
चन्दन – भगवान को चंदन अर्पित करें।
श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् ।
विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, गन्धं समर्पयामि ।
अक्षत – भगवान को चावल अर्पित करें।
अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ताः सुशोभिताः ।
मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, अक्षतान् समर्पयामि ।
पुष्पमाला – भगवान को पुष्प तथा फूलमाला चढ़ायें।
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो ।
मयाऽऽह्तानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, पुष्पं पुष्पमालां च समर्पयामि ।
दूर्वा – भगवान को दूर्वा अर्पित करें।
दूर्वांकुरान् सुहरितानमृतान् मंगलप्रदान् ।
आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, दूर्वांकुरान् समर्पयामि ।
धूप, दीप – भगवान को धूप दीप दिखायें।
वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यः गन्ध उत्तमः ।
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया ।
दीपं गृहाण देवेश ! त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, धूपं, दीपं दर्शयामि ।
नैवेद्य — भगवान को मिठाई अर्पित करें।
(पंचमिष्ठान्न व सूखी मेवा अर्पित करें)
शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च ।
आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, नैवेद्यं निवेदयामि ।
ऋतुफल – भगवान को केले, आम, सेवफल आदि चढ़ायें ।
फलेन फलितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
तस्मात् फलप्रदादेन पूर्णाः सन्तु मनोरथाः ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, ऋतुफलं निवेदयामि।
मध्ये आचमनीयं जलं उत्तरापोऽशनं च समर्पयामि ।
ताम्बूल – भगवान को पान सुपारी अर्पित करें ।
पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् ।
एलालवंगसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, मुखवासार्थे ताम्बूलं समर्पयामि ।
भगवान सत्यनारायणाय को अपना कमाई का एक अंश के रूप में कुछ द्रव्य अर्पित करें चाहिए।
दक्षिणा श्लोक
हिरण्यगर्भ गर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः ।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥
ॐ श्री सत्यनारायणाय नमः, दक्षिणां समर्पयामि ।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा
पहला अध्याय
एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूत जी से कहा-हे प्रभु! इस कलियुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा ? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऐसा तप कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनवांछित फल मिले, ऐसी कथा सुनने की हमारी इच्छा है। सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले-हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मी नारायण भगवान से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारदजी से कहा था, सो ध्यान से सुनो-
एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में धूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। यहाँ अनेक योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मो के अनुसार अनेकों दुखों से पीड़ित देखकर सोचा, किस यत्न के करने से निश्चय ही प्राणियों के दुखों का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये। वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को देखकर, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पह्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे-हे भगवान्! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अन्त भी नहीं है। आप निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूत व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। नारद जी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले-हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है? आपका किस काम के लिये आगमन हुआ है, निःसंकोच कहें।
तब नारद मुनि बोले-मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मो के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हो तो बतलाइये कि उन मनुष्यों के सब दुःख् थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते है ? श्री विष्णु भगवान जी बोले- हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मैं कहता हूँ, सुनो-
बहुत पुण्य देने वाला, स्र्वग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ एक एक उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ। श्री सत्यनारायण भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधिपूर्वक करके मनुष्य धरती पर आयुपर्यन्त सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले- हे भगवन्! उस व्रत का फल क्या है, क्या विधान है और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए ? विस्तार से कहिये।
विष्णु भगवान बोले- हे नारद! दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला धन-धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। भक्ति ओर श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्रीसत्यनारायण की प्रातः काल के समय ब्राह्यणों और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे। भक्ति भाव से नैवेद्य, केले का फल, शहद, धी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लेवे।( गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण भी ले सकते हैं। ) और सब पदार्थो को भगवान के अर्पण कर देवे तथा बंधुओं सहित ब्राह्यणों को भोजन करावे, पश्चात् स्वयं भोजन करे। रात्रि में नृत्य, गीत आदि का आयोजन कर सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे। इस तरह व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय पूरी होती है। विशेष रूप से कलि-काल में भूमि पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम अध्याय संपूर्ण ।।
दूसरा अध्याय
सूतजी बोले- हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूं ध्यान से सुनो। सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्यण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ नित्य पृथ्वी पर धूमता था। ब्रह्यणों से प्रेम करने वाले भगवान ने ब्राह्यण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्यण का रूप धर उसके पास जा आदर के साथ पूछा- हे विप्र! तुम नित्य दुःखी हुए पृथ्वी पर क्यों धूमते हो ? हे ब्राह्यण! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ। ब्राह्यण बोला- मै निर्धन ब्रह्यण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ। हे भगवान्! यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हो तो कृपा कर मुझे बताएँ। वृद्ध ब्राह्यण बोला- हे विप्र! सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं। इसलिये तुम उनका पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता हैं। ब्राह्यण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्यण का रूप धारण करने वाले सत्यनारायण भगवान अन्तध्र्यान हो गये। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्यण ने बतलाया है, मैं उसको करूंगा, यह निश्चय करने पर उसे रात में नींद भी नही आईं। सवेरे उठ सत्यनारायण के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिये चला। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बंधु-बांधवों के साथ उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। इसके करने से वह ब्राह्यण सब दुखों से छुटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह ब्राह्यण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो करेगा वह मनुष्य सब दुःखों से छूट जायेगा। इस तरह नारद जी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रों ! मैं अब क्या कहूँ ?
ऋषि बोले- हे मुनिश्वर! स्ंसार में इस ब्राह्यण से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया ? हम वह सब सुनना चाहते हैं। इसके लिये हमारे मन में जिज्ञासा है। सूत जी बोले- हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है वह सब सुनो। एक समय वह ब्राह्यण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धु-बान्धवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियों को रखकर ब्राह्यण के मकान में गया। प्यास से दुःखी लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर ब्राह्यण को नमस्कार कर कहने लगा-आप यह क्या कर रहे हैं इसके करने से क्या फल मिलता हैं ? कृपा करके मुझको बताइए।
ब्राह्यण ने कहा- सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है। ब्राह्यण से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत ले प्रसाद खाने के बाद अपने धर को गया।
अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकडी बेचने से जो धन मिलेेगा उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूंगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियां अपने सिर पर रखकर, जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस दिन वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चैगुना मिला। तब वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, घी, दूध, दही ओर गेहूँ का चूर्ण इत्यादि, सत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ड़ को चला गया।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय संपूर्ण ।।
तीसरा अध्याय
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियों! अब आगे की कथा कहता हूँ, सुनो-पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा रहता था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी। पुत्र प्राप्ति के लिए भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। उस समय में वहां एक साधु नामक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिये बहुत-सा धन था। वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने लगा- हे राजन्! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं ? मेरी सुनने की इच्छा हैं। सो आप यह मुझे बताइये। राजा बोला- हे वैश्य! अपने बान्धवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिवान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ। राजा के वचन सुनकर साधू आदर से बोेेेला- हे राजन्! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है मुझे विश्वास है कि इस व्रत के करने से निश्चय ही होगी। राजा से सब विधान सुन व्यापार से निवृत्त हो वह आनन्द के साथ अपने घर को गया। साधु ने अपनी स्त्री को संतान देने वाले इस व्रत को सुनाया और प्रण किया कि जब मेरे संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री को संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री लीलावती से कहे। एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। दिनों-दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो आपने संकल्प किया था कि भगवान का व्रत करूंगा, अब आप उसे करिये। साधु बोला- हे प्रिये! इसके विवाह पर करूंगा। इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया।
कलावती पितृ-गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को देखा तो तुरन्त दूत बुलाकर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुंचा और वहाँ पर बड़ी खोजकर देखभाल कर लकड़ी के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बन्धु-बान्धवों सहित प्रसन्नचित हो अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। तब श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गये और साधु को श्राप दिया कि तुम्हे दारूण दुःख प्राप्त होगा।
अपने कार्य में कुशल साधु वैश्य अपने जमाता सहित समुद्र के समीप स्थित रत्नपुर नगर में गया और वहाँ दोनों ससुर-जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देखकर चोर घबराकर भागते हुए धन को वहीं चुपचाप रख दिया जहां वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे। जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बांधकर ले गये ओर राजा के समीप जाकर बोले- हे राजन्! यह दो चोर हम पकड़ लाये हैं, देखकर आज्ञा दीजिए। तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया और उनका सब धन छीन लिया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण साधु वैश्य की पत्नी व पुत्री भी धर पर बहुत दुःखी हुईं। उनके घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गये शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो अन्न की चिन्ता में कलावती एक ब्राह्यण के घर गई। वहां उसने सत्यनारायण भगवान् का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा- हे पुत्री! अब तक कहां रही व तेरे मन में क्या हैं ?
कलावती बोली- हे माता! मैंने एक ब्राह्यण के घर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत होता देखा है। कन्या के वचन सुनकर लीलावती भगवान् के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बन्धुंओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और वर मांगा कि मेरे पति और दामाद शीध्र घर आ जायें। साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो। सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गये और राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन्! थ्जन दोनों वैश्यों को तुमने बन्दी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है, लोटा दो, नही तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तध्र्यान हो गये। प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचनों से बोला- हे महानुभावों! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं। ऐसा कहकर राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनवाये तथा उनका जितना धन लिया था उससे दुगना धन देकर आदर सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का तृतीय अध्याय संपूर्ण ।।
चौथा अध्याय
श्रीसूत जी बोले – साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई – ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हंसते हुए कहा – ‘दण्डी संन्यासी! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ मुद्रा लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर बोले – ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ – ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।
दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा – ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने श्राप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहां दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा – आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें – ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से व्याकुल हो गया।
दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा – ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।
साधु ने कहा – ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूंगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुराा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।
भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ – ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा – ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत को अपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।
उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह अति आनंदित हुई और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।
इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया ने सोचा – यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।
कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्या सहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा – या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूंगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक आकाशवाणी की – ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।
कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा – ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ।।
पांचवाँ अध्याय
श्रीसूत जी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूंगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बार वह वन में बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न उसे भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।
उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।
श्रीसूत जी कहते हैं – जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है – यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।
महान प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय संपूर्ण ।।
श्रीसत्यनारायण भगवान की आरती
जय लक्ष्मी रमणा, जय श्रीलक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी जन- पातक- हरणा ।।
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।
नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।।
प्रकट भये कलि-कारण, द्विजको दरस दियो ।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ।।
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी ।।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीँ ।
सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ।।
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो ।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी ।
मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा ।
धूप – दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।।
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै ।
तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।।